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आस्था बढ़ाना (2 का भाग 1): आस्था हमेशा स्थिर स्तर पर क्यों नहीं रहती
विवरण: किसी की आस्था (ईमान) के स्तर को बढ़ाने का एक परिचय। यहां हम आस्था शब्द के अर्थ को जानेंगे और देखेंगे कि आस्था मुख्य रूप से मनुष्य की प्रकृति और हमारे दैनिक जीवन में आने वाली विभिन्न परिस्थितियों के कारण बढ़ती और घटती रहती है।
द्वारा Aisha Stacey (© 2013 NewMuslims.com)
प्रकाशित हुआ 08 Nov 2022 - अंतिम बार संशोधित 07 Nov 2022
प्रिंट किया गया: 5 - ईमेल भेजा गया: 0 - देखा गया: 558 (दैनिक औसत: 2)श्रेणी: पाठ > बढ़ती आस्था > आस्था बढ़ाने के साधन
उद्देश्य
· यह जानना कि आस्था शब्द का अर्थ क्या है, विशेष रूप से इस्लाम में।
· यह समझना कि किसी व्यक्ति की आस्था का स्तर कैसे और क्यों स्थिर नहीं रहता, बल्कि कई कारणों के अनुसार बढ़ता और घटता है।
अरबी शब्द
· ईमान - आस्था, विश्वास या दृढ़ विश्वास।
· रमजान - इस्लामी चंद्र कैलेंडर का नौवां महीना। यह वह महीना है जिसमें अनिवार्य उपवास निर्धारित किया गया है।
· शैतान - यह इस्लाम और अरबी भाषा में इस्तेमाल किया जाने वाला शब्द है जो शैतान यानि बुराई की पहचान को दर्शाता है।
· शाहदाह - आस्था की गवाही
· नमाज - आस्तिक और अल्लाह के बीच सीधे संबंध को दर्शाने के लिए अरबी का एक शब्द। अधिक विशेष रूप से, इस्लाम में यह औपचारिक पाँच दैनिक प्रार्थनाओं को संदर्भित करता है और पूजा का सबसे महत्वपूर्ण रूप है।
· सवम - उपवास।
· हज - मक्का की तीर्थयात्रा, जहां तीर्थयात्री अनुष्ठानों की एक श्रृंखला का पालन करते हैं। हज इस्लाम के पांच स्तंभों में से एक है, जिसे हर वयस्क मुसलमान को अपने जीवन में कम से कम एक बार अवश्य करना चाहिए यदि वे इसे वहन कर सकते हैं और शारीरिक रूप से सक्षम हैं।
· ज़कात - अनिवार्य दान।
आस्था क्या है?
मरियम वेबस्टर ऑनलाइन डिक्शनरी में विश्वास शब्द की परिभाषा मे निम्नलिखित शामिल हैं: ईश्वर में आस्था और विश्वास और उनके प्रति वफादारी, एक धर्म के पारंपरिक सिद्धांतों में विश्वास, और कुछ ऐसा जिसमे विशेष रूप से दृढ़ विश्वास हो।
इस्लाम में आस्था का अर्थ है, निःसंदेह किसी बात को सत्य मानना। किसी व्यक्ति को यह केवल अल्लाह ही दे सकता है और इसमें केवल और केवल ईश्वर के रूप में अल्लाह पर विश्वास और उसको स्वीकार करना शामिल है। आस्था रखने वाला व्यक्ति अल्लाह के दास के रूप में अपनी स्थिति को समझता है और स्वीकार करता है और अल्लाह की आज्ञा मानने और धन्यवाद देने के अधिकार को स्वीकार करता है। आस्था में यह जानना भी शामिल है कि अल्लाह ने अपने वफादार दास के साथ जो वादे किये हैं वो सच है और पूरे होंगे।
आस्था या ईमान शब्दों में व्यक्त की जाने वाली, दिल के भीतर विश्वास करने और अमल में लाने की चीज है।
पैगंबर मुहम्मद ने कहा कि आस्था की लगभग सत्तर शाखाएं हैं, जिनमें से सबसे बड़ी यह है कि 'अल्लाह के अलावा कोई सच्चा ईश्वर नही है' और सबसे छोटा सड़क पर से रोड़ा हटाना है।”[1]
आस्था "ला इलाहा इल्लल्लाह व मुहम्मद रसूलुल्लाह" शब्दों के साथ व्यक्त की जाती है, जिसका अर्थ है: अल्लाह के सिवा कोई सच्चा ईश्वर नहीं है और मुहम्मद उनके दूत हैं। इस्लाम के पांच स्तंभों का पालन करके आस्था रखी जाती है और आस्था के छह स्तंभों में विश्वास के साथ यह दिल में रहता है।
इस्लाम के पांच स्तंभ
· शाहदाह : ईमानदारी से आस्था की गवाही पढ़ना।
· नमाज़: दिन में पांच बार सही तरीके से नमाज़ पढ़ना।
· ज़कात: गरीबों और जरूरतमंदों को लाभ पहुंचाने के लिए भिक्षा या दान में एक निश्चित प्रतिशत का भुगतान करना।
· सवम: रमजान के महीने में उपवास रखना।
· हज: मक्का (वर्तमान में सऊदी अरब में स्थित) की तीर्थयात्रा जहां तीर्थयात्री अनुष्ठानों का एक श्रृंखला का पालन करते है।
आस्था के छह स्तंभ
· अल्लाह में विश्वास।
· स्वर्गदूतों में विश्वास।
· प्रकट पुस्तकों में विश्वास।
· अल्लाह के दूतों और पैगंबरों मे विश्वास।
· अंतिम दिन में विश्वास।
· पूर्वनियति या दैवीय आदेश में विश्वास।
आस्था (इमान) बढ़ता और घटता रहता है
पैगंबर मुहम्मद ने कहा, "... दिल की सादृश्यता पेड़ की जड़ में एक पंख की तरह है, जो हवा से बार-बार घूमता रहता है।”[2]
आस्था यह है, अल्लाह पर पूर्ण निर्भरता, जो हमें सुरक्षित और अल्लाह के करीब महसूस कराती है - हालांकि आस्था स्थिर नही रहती है, यह बढ़ती और घटती रहती है। आस्था अक्सर जीवन की परिस्थितियों के अनुसार बदलती रहती है, लेकिन बदलने का कारण जो भी हो, आस्था अल्लाह की आज्ञाकारिता से बढ़ती है और अवज्ञा से घटती है। विश्वासियों के रूप में हमें यह जानने की कोशिश करनी चाहिए कि कौन सी चीजें हैं जो हमारे विश्वास को कम करती हैं, जैसे कि हमारी प्रार्थना में कमी या शैतान का फुसफुसाना। उसके बाद हमें उन चीजों या परिस्थितियों से बचने के लिए उचित कदम उठाने चाहिए, और साथ ही उन कामों को करके अपनी आस्था को बढ़ाने की कोशिश करनी चाहिए जो अल्लाह को पसंद हैं। हम सभी का ऐसा समय आता है जब हमें पूजा के कार्य करने की आवश्यकता या जरुरत महसूस होती है और यह स्वाभाविक है और ऐसा समय हमारे पूरे जीवन में कई बार आएगा। इस प्रकार विश्वासी के लिए अपनी आस्था को सुरक्षित रखना एक सबसे महत्वपूर्ण कार्य है। किसी के दिल में आस्था के स्तर को बढ़ाने का प्रारंभिक बिंदु यह पहचानना है कि कोई समस्या है।
वो चीजें जो हमारी आस्था (ईमान) के स्तर को कम करती हैं
· पूजा के कार्यों को छोड़ना।
· पाप करना। खासकर छोटे-छोटे पाप जो लगातार किए जाते हैं।
· अल्लाह के नाम और गुणों की अज्ञानता।
· अल्लाह की महानता के संकेतों पर विचार करने में असफल होना। विशेष रूप से वे जो हम हर दिन अनुभव करते हैं जैसे कि सूर्य, चंद्रमा और तारे, या सांस लेने या प्रजनन करने की क्षमता।
· अल्लाह के प्रति आभारी न होना, यहां तक छोटी से छोटी योग्यता या संपत्ति के लिए भी।
· पर्याप्त ज्ञान प्राप्त करने में असफल होना।
· अच्छे कर्म करने में असफल होना, यहां तक कि मुस्कुराने जैसी छोटी-छोटी कर्म भी।
· उन चीजों को करके समय बर्बाद करना जिनका न तो इस दुनिया मे और न परलोक मे कोई उपयोग है।
· यह भूलना कि हमारा अंतिम उद्देश्य अल्लाह की पूजा करना है।
· जीवन की आवश्यकताओं की अधिकता। उदाहरण के लिए, बहुत अधिक खाना, दिन में सोना, बिना किसी उद्देश्य के देर तक जागना, बिना किसी कारण के बात करना और धन में व्यस्त रहना।
कई बार कई लोगों को लगता है कि वे इतना अधिक प्रयास करते हैं और फिर भी समझ नहीं पाते कि उनकी आस्था क्यों कम हो रही है। इस समय यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि मानव जाति का सबसे बड़ा दुश्मन, शैतान लोगों को वो चीज़ें भुला देता है जो उनके लिए सर्वोत्तम होती हैं। शैतान लापरवाही और आलस्य को प्रोत्साहित करता है, दोनों ही ऐसे लक्षण हैं जो आस्था में कमी का कारण बनते हैं।
आस्था के घटते-बढ़ते स्तर सामान्य हैं। ऐसा हर किसी के साथ होता है। ऐसे समय में पूजा के सभी अनिवार्य कार्य करना महत्वपूर्ण है और इस प्रकार कभी भी अल्लाह के मार्ग को पूरी तरह से नहीं छोड़ना चाहिए। क्योंकि जहां भी आस्था का सबसे छोटा टुकड़ा होता है, वहां आशा बनी रहती है।
इसके बाद के पाठ में हम आस्था को बढ़ाने के असंख्य तरीके जानेंगे।
इसके अलावा आप यहां उपलब्ध लाइव चैट के माध्यम से भी पूछ सकते हैं।
- स्वैच्छिक प्रार्थना
- जानवरों के प्रति व्यवहार
- झूठ बोलना, चुगली करना और झूठी निंदा करना (2 का भाग 1)
- झूठ बोलना, चुगली करना और झूठी निंदा करना (2 का भाग 2)
- आस्था बढ़ाना (2 का भाग 1): आस्था हमेशा स्थिर स्तर पर क्यों नहीं रहती
- आस्था बढ़ाना (2 का भाग 2): अपनी आस्था (ईमान) बढ़ाना और पुरस्कार अर्जित करना
- स्वैच्छिक उपवास
- न्याय के दिन की निशानियां (2 का भाग 1): छोटी निशानियां
- न्याय के दिन की निशानियां (2 का भाग 2): प्रमुख निशानियां
- व्यभिचार, वैश्यावृति, और पोर्नोग्राफ़ी (2 का भाग 1)
- व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, और पोर्नोग्राफ़ी (2 का भाग 2)
- विपरीत लिंगो के बीच मेलजोल के इस्लामी दिशानिर्देश (2 का भाग 1)
- विपरीत लिंगो के बीच मेलजोल के इस्लामी दिशानिर्देश (2 का भाग 2)
- शरिया का परिचय (2 का भाग 1)
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- मानव स्वभाव के अनुरूप कार्य (सुनन अल-फ़ित्रह)
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- ईद-उल-अजहा शुरू से आखिर तक (3 का भाग 2)
- ईद-उल-अजहा शुरू से आखिर तक (3 का भाग 3)
- इस्लाम में नवाचार (2 का भाग 1): बिदअत के दो प्रकार
- इस्लाम में नवाचार (2 का भाग 2): क्या यह एक बिदअत है?
- रमजान: अंतिम दस रातें
- उम्रह (2 का भाग 1)
- उम्रह (2 का भाग 2)
- इस्लाम में पापों की अवधारणा (3 का भाग 1)
- इस्लाम में पापों की अवधारणा (3 का भाग 2)
- इस्लाम में पापों की अवधारणा (3 का भाग 3)