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सूरह अल-फातिहा पर विचार (3 का भाग 3)

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विवरण: पवित्र क़ुरआन के सबसे अधिक पढ़े जाने वाले छंद की व्याख्या। भाग 3: अंतिम तीन छंदों की व्याख्या जो अल्लाह से की गई प्रतिज्ञा से संबंधित है और उन शब्दों में मनुष्य की ओर से एक प्रार्थना है जो स्वयं अल्लाह ने अपनी महान दया से मनुष्य को सिखाया है कि क्या प्रार्थना करनी है।

द्वारा Imam Mufti

प्रकाशित हुआ 08 Nov 2022 - अंतिम बार संशोधित 07 Nov 2022

प्रिंट किया गया: 23 - ईमेल भेजा गया: 0 - देखा गया: 1,247 (दैनिक औसत: 3)


उद्देश्य

·सूरह अल-फातिहा के अंतिम तीन छंदों की व्याख्या छंद-दर-छंद सीखना।

अरबी शब्द

·सूरह - क़ुरआन का अध्याय।

·तौहीद - प्रभुत्व, नाम और गुणों के संबंध में और पूजा की जाने के अधिकार में अल्लाह की एकता और विशिष्टता।

·शिर्क - एक ऐसा शब्द जिसका अर्थ है अल्लाह के साथ भागीदारों को जोड़ना, या अल्लाह के अलावा किसी अन्य को दैवीय बताना, या यह विश्वास करना कि अल्लाह के सिवा किसी अन्य में शक्ति है या वो नुकसान या फायदा पहुंचा सकता है।

5. हम केवल तुझी को पूजते हैं और केवल तुझी से सहायता मांगते हैं

Reflections_on_Surah_al-Fatiha_(part_3_of_3)_001.jpgइस छंद में इस्लाम का सार है: तौहीद। आदम से लेकर मूसा, जीसस और मुहम्मद (इन सभी पर शांति हो) तक के सभी पैगंबरो को केंद्रीय संदेश देने के लिए भेजा गया था: सिर्फ अल्लाह की पूजा करो जिसका कोई बेटा या साथी नहीं है। आस्था की पहली गवाही का यही अर्थ है: ला इलाहा इल्लल्लाह। यह सृष्टि का एकमात्र उद्देश्य है। तौहीद मोक्ष है और हमें तौहीद का संदेश अपने दोस्तों और परिवार तक पहुंचाना चाहिए। कोई भी इंसान इतना करीब नहीं है कि अल्लाह का सहयोगी बन जाए और उसके फैसले को बदल दे। इस विचार से हटना किसी के अध्यात्म के लिए घातक है।

वह कौन सी 'पूजा' है जिसे हम केवल ईश्वर को समर्पित कर रहे हैं?

यह एक व्यापक शब्द है जिसमें अल्लाह के लिए भक्ति कृत्यों के रूप में पांच दैनिक प्रार्थना या उपवास के साथ-साथ अन्य मनुष्यों से परिवार और दोस्तों जैसा व्यवहार करना शामिल है। किसी के अंगों द्वारा किए गए सरल शारीरिक कार्य जैसे मुस्कुराना और प्रेम, आशा और भय जैसी तीव्र भावनाऐं इसके दायरे में आती हैं। ईश्वर की पूजा उसकी आज्ञाओं का पालन कर के और उसने जो मना किया है उससे परहेज करके की जाती है। हर वह स्पष्ट और छिपा हुआ उच्चारण और कार्य पूजा है जिसे अल्लाह पसंद करता है। सीधे शब्दों में कहें तो, ईश्वर को प्रसन्न करने वाला प्रत्येक कार्य इस्लाम में पूजा का कार्य है। शरीर, आत्मा और हृदय से अल्लाह की पूजा करनी चाहिए और यह तब तक अधूरा रहता है जब तक कि यह श्रद्धा और अल्लाह के भय, ईश्वरीय प्रेम और आराधना, ईश्वरीय इनाम की आशा और अत्यधिक विनम्रता से न किया जाये। जो पूजा सिर्फ अल्लाह के लिए है उसका कोई हिस्सा किसी पैगंबर, स्वर्गदूत, यीशु, मरियम, मूर्तियां को देना शिर्क है और इस्लाम में सबसे बड़ा पाप है।

विनम्रता उपासना का एक अनिवार्य घटक है और संसार के प्रभु के करीब जाने का विनम्रता से बेहतर कोई उपाय नहीं है। अभिमानी व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत भक्ति से ईश्वर के करीब जाने का अपना मार्ग अवरुद्ध कर लेता है। पूजा से हमें और अधिक विनम्र बनाना चाहिए। पैगंबर मुहम्मद (उन पर अल्लाह की दया और आशीर्वाद हो) ने यह कहकर शानदार ईश्वर के सामने अपनी कमी, कमजोरी और अधर्म को स्वीकार करना सिखाया है:

“ऐ अल्लाह, मैंने अपनी आत्मा पर बहुत अत्याचार किया है, और आपके सिवा कोई भी पापों को क्षमा नहीं करता है, इसलिए मुझे क्षमा करें और मुझ पर दया करें। निश्चय ही तू बड़ा क्षमाशील, अत्यन्त दयावान है।”

एक अन्य प्रार्थना में वे कहते थे:

“ऐ अल्लाह, तुम मेरा पालनहार है। तुम्हारे सिवा कोई ईश्वर नहीं है। तू ने मुझे बनाया और मैं तेरा दास हूं, और मैं तेरे आदेशों का पालन करता हूं और जितना मैं कर सकता हूं उतना करने का वादा करता हूं। मैं जो बुराई करता हूं, उस से मैं तेरी शरण चाहता हूं। मैं तेरी दया से तेरे पास लौट आया हूं, और मैं अपने पापों के साथ तेरे पास लौट आया हूं। सो मुझे क्षमा कर, क्योंकि तेरे सिवा कोई पाप क्षमा नहीं करता।”

हमें अल्लाह की पूजा करने के लिए भी अल्लाह की मदद की जरूरत है। इसलिए हम उससे हमारी सहायता करने के लिए कहते हैं। इसके अलावा, अल्लाह ही एकमात्र है जिससे मदद मांगना चाहिए, जिसमें उसकी पूजा करने के लिए मदद मांगना भी शामिल है। इसका मतलब यह नहीं है कि हम किसी से नए घर में शिफ्ट होने के लिए मदद नहीं मांग सकते हैं! इस पद में "सहायता" का अर्थ अलौकिक सहायता है। इसे स्पष्ट करने का एक उदहारण ये है, जब आप अपने बीमार बच्चे को आपातकालीन कक्ष में ले जाते हैं, तो आपको सिर्फ अल्लाह से अपने बच्चे की मदद करने के लिए कहना चाहिए, न कि किसी मृत संत या स्वर्गदूत से।

6. हमें सीधा मार्ग दिखा।

मनुष्य स्वभाव से दुर्बल है। आज वे अल्लाह के करीब हैं, कल दूर हो जायेगा। इस प्रार्थना में एक मुसलमान अल्लाह से उसे मजबूत बनाये रखने के लिए कहता है, ताकि वह सीधे रास्ते पर चल सके। एक मुसलमान हर नमाज़ (अनुष्ठान प्रार्थना) में इस याचिका को दोहराता है। अध्यात्म में हमेशा कुछ लोग होते हैं जो हमसे बेहतर होते हैं। एक मुसलमान को लगातार 'बेहतर' होने का प्रयास करना चाहिए और अपने धैर्य, अच्छे शिष्टाचार और इस्लाम के अभ्यास में वृद्धि करके शक्ति के ईश्वर के करीब पहुंचना चाहिए। खासकर नए मुसलमान लिए नए, वास्तव में उन्हें अपनी इस्लाम की यात्रा में में इस प्रार्थना की आवश्यकता होगी। एक मुसलमान को सीखना चाहिए और पता लगाना चाहिए कि जीवन के हर मोड़ पर ईश्वर उससे क्या चाहता है और उसे शुद्ध इरादे से पूरा करना चाहिए।

7. उनका मार्ग, जिनपर तूने पुरस्कार किया। उनका नहीं, जिनपर तेरा प्रकोप हुआ और न ही उनका, जो कुपथ (गुमराह) हो गये।

यह छंद पिछले छंद की निरंतरता है। यह इस सवाल का जवाब दे रहा है... 'मुझे किसके रास्ते पर जाना चाहिए?' मेरे माता-पिता, रिश्तेदार, दोस्त, देशवासी... किसका?

जवाब है; जिन पर ईश्वरीय कृपा हुई थी। वे कौन थे? क़ुरआन के एक अन्य अंश में उनकी पहचान बताई गई है:

“तथा जो अल्लाह और दूत की आज्ञा का अनुपालन करेंगे, वही (स्वर्ग में) उनके साथ होंगे, जिनपर अल्लाह ने पुरस्कार किया है, अर्थात पैगंबरो, सत्यवादियों, शहीदों और सदाचारियों के साथ और वे क्या ही अच्छे साथी हैं” (क़ुरआन 4:69)

पैगंबर (उन पर अल्लाह की दया और आशीर्वाद हो) ने कहा:

“यहूदी वे हैं जिन पर अल्लाह का प्रकोप हुआ और ईसाई वे हैं जो भटक ​​गए हैं।।”[1]

ये वे लोग हैं जो सत्य को जानते हैं, फिर भी इसका पालन नहीं करते हैं, इनमे यहूदी[2] और अन्य भी शामिल हैं। इसे यहूदियों का विरोध करने के रूप में नहीं लेना चाहिए।

पहला, अल्लाह का प्रकोप सिर्फ यहूदियों तक ही सीमित नहीं है। उदाहरण के लिए, अल्लाह एक निर्दोष व्यक्ति के क़त्ल करने के बारे में कहता है:

“और जो किसी विश्वासी की हत्या जान-बूझ कर कर दे, उसका बदला नरक है, जिसमें वह सदावासी होगा और उसपर अल्लाह का प्रकोप तथा धिक्कार है” [क़ुरआन 4:93]

दूसरा, दैवीय प्रकोप उन लोगों के लिए है जो सीधे मार्ग पर नहीं थे, ज्ञान की कमी के कारण नहीं, बल्कि उनकी व्यर्थ इच्छाओं ने उन्हें सीधे रास्ते पर जाने से रोक दिया। जैसा कि पुराने नियम का कोई भी छात्र जानता है, यहूदी रब्बियों के पास ज्ञान था लेकिन उन्होंने उस पर अमल नहीं किया और मूसा के धर्म को बदलने में उनका सबसे बड़ा प्रभाव था। इसी तरह, एक मुस्लिम विद्वान या हम में से कोई भी जिसके पास ज्ञान है, लेकिन उस पर अमल नहीं करता है, वह भी इस मामले में यहूदियों के समान है। "निर्देशित" होने का एक अर्थ है सही कार्य को करने और जो गलत है उसे त्यागने का दृढ़ संकल्प रखना है। पैगंबर (उन पर अल्लाह की दया और आशीर्वाद हो) ने कहा है:

“एक आदमी को न्याय के दिन लाया जाएगा और नर्क की आग में डाला जाएगा। उसको आग में गिरा दिया जाएगा और वह उसमें ऐसे घूमेगा जैसे गधा चक्की के चारों ओर घूमता है। नर्क के निवासी उसके चारों ओर इकट्ठे होंगे और कहेंगे: 'तुम्हारे साथ क्या मामला है? क्या तुम हमें सही का उपदेश नहीं देते थे और हमें गलत करने से मना नहीं करते थे?' वह उत्तर देगा: 'मैं तुम्हें बताता था कि क्या सही है लेकिन मैं खुद सही नहीं करता था और मैं तुम्हें गलत करने से मना करता था और फिर खुद गलत करता था।”[3]

इस आदमी के पास ज्ञान था। वह सही और गलत जानता था। इसके अलावा, वह जो सही है उसे करने की आज्ञा देता और जो गलत है उसे करने से मना करता। लेकिन उसने स्वयं अपने ज्ञान के अनुसार कार्य नहीं किया, इसलिए उसने अपनी सजा अर्जित की।

तीसरा, मैं इस बिंदु को एक उदाहरण के साथ स्पष्ट करूंगा। आइए कुछ बुनियादी बात करते हैं। दस आज्ञाएं यहूदी धर्म की आधारशिला हैं। यहूदी धर्म में शबात का पालन करना सबसे महत्वपूर्ण अनुष्ठान है, इसे दस आज्ञाओं में शामिल किया गया है। स्वयं बइबिल के अनुसार, यहूदियों को इसका उल्लंघन करने पर धमकाया गया, दंडित किया गया[4], और दैवीय प्रकोप मिला[5]इस्लाम में शुक्रवार सप्ताह का सबसे पवित्र दिन होता है और इसे चिह्नित करने के लिए एक विशेष नमाज (अनुष्ठान प्रार्थना) आयोजित की जाती है। अल्लाह द्वारा निर्धारित शुक्रवार की पवित्रता को सब मुसलमान अच्छी तरह से जानते हैं। किसी भी कारण से इसे किसी अन्य दिन में बदलना शबात का उल्लंघन करने वाले यहूदियों के समान होगा। यह जानबूझकर एक दैवीय रूप से निर्धारित अनुष्ठान को भ्रष्ट करना होगा।

“…और न ही उनका, जो कुपथ (गुमराह) हो गये।”

ये वे लोग हैं जो ईसाइयों और अन्य लोगों की तरह अज्ञानता के कारण सत्य को त्याग देते हैं। ईसाई अज्ञानता से भटक रहे हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि उनमें से कुछ के भीतर सिर्फ अज्ञानता ने हठ विकसित किया। ये वे लोग हैं जो पूजा करते हैं, लेकिन बिना ज्ञान के करते हैं। एक मुसलमान जो अज्ञानता के कारण बिना शाब्दिक अधिकार के ईश्वर की पूजा करता है, इस मामले में वह ईसाइयों के समान है। उदाहरण के लिए, कैथोलिक निर्जीव वस्तुओं की भी पूजा करते हैं, जैसे कि शहीद के अवशेष, क्राइस्ट का क्रॉस, कांटों का ताज, या यहां तक ​​कि एक संत की मूर्ति या तस्वीर। अन्य ईसाई पूजा के रूप में रॉक बैंड या गायन का उपयोग करते हैं। इसके विपरीत, यीशु ने कभी भी संगीत, भजन गाकर, या क्रूस की वंदना करके ईश्वर की आराधना नहीं की! इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि इरादा कितना अच्छा है, मुसलमान ईसाइयों के समान होगा यदि वो पूजा के रूप में संगीत का उपयोग करेगा और भक्ति गीत जाएगा क्योंकि अंतिम पैगंबर ने इस तरह से अल्लाह की पूजा नहीं की थी। पैगंबर मुहम्मद ने स्पष्ट रूप से बताया है कि ईश्वर की पूजा कैसे की जानी चाहिए; इससे भटकने की अनुमति नहीं है।

हम अल्लाह से खुद को सीधे रास्ते पर चलाने के लिए कहते हैं, वो रास्ता जो पैगंबरो और उनके धर्मी अनुयायियों का था और हमें चेतावनी देने के लिए कि हम उसी रास्ते पर चलें, हम प्रार्थना करते हैं कि हम पहले समूह के लोगों की तरह न बनें जो अपने ज्ञान के अनुसार कार्य करने में विफल रहे या दूसरे समूह की तरह जो ज्ञान हासिल करने में विफल रहे।



फुटनोट:

[1] तिर्मिज़ी, अहमद का मुसनद और इब्न हिब्बन। अल-अज़हर के बड़े इमाम मुहम्मद सैय्यद तंतावी ने अपनी व्याख्या 'तफ़सीर अल-वसित' में उद्धृत किया।

[2] यहूदी कौन है और यहूदी धर्म क्या है? ये जटिल प्रश्न हैं क्योंकि आज बहुत से लोग जो खुद को यहूदी कहते हैं, उस धर्म को बिल्कुल भी नहीं मानते हैं! इज़राइल में आधे से अधिक यहूदी आज खुद को "धर्मनिरपेक्ष" कहते हैं और ईश्वर या यहूदी धर्म के किसी भी धार्मिक आस्था में विश्वास नहीं करते हैं। संयुक्त राज्य के सभी यहूदियों में से आधे किसी भी आराधनालय से संबंधित नहीं हैं। वे यहूदी धर्म के कुछ अनुष्ठानों का पालन करते हैं और कुछ त्यौहार मनाते हैं, लेकिन वे इन कार्यों को धार्मिक गतिविधि नही मानते हैं। किसी भी मामले में, मूसा से शुरू होने वाले हिब्रू पैगंबरो के सच्चे अनुयायियों को दोष से मुक्त माना जाता है क्योंकि उन्होंने अपनी मूल धार्मिक शिक्षाओं को विकृत नहीं किया था। हमारे अनुसार एक 'यहूदी' वह है जो यहूदी धर्म में विश्वास करता है लेकिन हिब्रू पैगंबरो द्वारा स्थापित मूल मान्यताओं और प्रथाओं का पालन नहीं करता है, बल्कि शायद रब्बियों और उनकी परिषदों का पालन करता है। अल्लाह बेहतर जानता है।

[3] बुखारी, मुस्लिम

[4] उसने यरूशलेम को उसके उल्लंघन के लिए नष्ट कर दिया (यिर्मयाह 17:27)।

[5] “उन्होंने मेरी विधियों का पालन नहीं किया, बल्कि मेरी व्यवस्था को ठुकरा दिया, यद्यपि जो उनका पालन करेगा, वह उनके अनुसार जीएगा, और उन्होंने मेरे विश्रामदिनों को पूरी तरह से अपवित्र कर दिया। तब मैं ने कहा, कि मैं अपना प्रकोप उन पर डालूंगा, और उनका जंगल में नाश करूंगा।” (यहेजकेल 20:21; नया अंतर्राष्ट्रीय संस्करण)

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